सुप्रीम कोर्ट ने विवाहेतर संबंधों और पितृत्व से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि यदि किसी शादीशुदा महिला का किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध होता है और वह उस पुरुष के बच्चे की मां बनती है, तो कानूनी रूप से बच्चे का पिता महिला का पति ही माना जाएगा। यह नियम तब लागू होता है जब पति-पत्नी का विवाह कानूनी रूप से मान्य हो और दोनों के बीच शारीरिक संबंध बने हों।
यह फैसला केरल के एक मामले में आया है, जहां एक शादीशुदा महिला ने विवाह के दौरान किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध बनाया और उसके बच्चे को जन्म दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पितृत्व और बच्चे की वैधता से जुड़े जटिल सवालों पर विचार किया। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के तहत यह एक मजबूत अनुमान है कि विवाह के दौरान पैदा हुए बच्चे का कानूनी पिता महिला का पति ही होगा। इस धारा का उद्देश्य बच्चे की पैदाइश को लेकर अनावश्यक जांच से बचाना है। हालांकि, यदि पति यह साबित कर सके कि उस समय वह अपनी पत्नी से शारीरिक संबंध बनाने में असमर्थ था, तो वह पितृत्व को चुनौती दे सकता है।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि ‘संपर्क में न रहने’ का मतलब है कि पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंध बनाना असंभव था। इसका अर्थ यह है कि पितृत्व को चुनौती देने के लिए पति को यह साबित करना होगा कि उस समय वह अपनी पत्नी से दूर था और उनके बीच संबंध बनाने की कोई संभावना नहीं थी।
इस मामले में महिला ने स्वीकार किया कि उसने शादी के दौरान किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध बनाया और उसके बच्चे को जन्म दिया। बाद में उसने तलाक ले लिया और बच्चे का उपनाम बदलने के लिए कोचीन नगरपालिका से आवेदन किया। नगरपालिका ने इसे अदालती आदेश के बिना करने से इनकार कर दिया। महिला ने अदालत में दावा किया कि बच्चे का जैविक पिता वही पुरुष है, लेकिन उस पुरुष ने इससे इनकार कर दिया। इसके बाद महिला ने उस पुरुष से बच्चे के भरण-पोषण की मांग की।
केरल की अदालतों ने उस पुरुष को डीएनए परीक्षण कराने का आदेश दिया, लेकिन उसने सुप्रीम कोर्ट में इस आदेश को चुनौती दी। वरिष्ठ वकील रोमी चाको ने तर्क दिया कि डीएनए परीक्षण करने के लिए मजबूर करना भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 का उल्लंघन होगा, जो पति-पत्नी के बीच गोपनीयता की रक्षा करती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतों को यह संतुलन बनाना होगा कि एक ओर व्यक्ति की गोपनीयता और सम्मान की रक्षा हो, और दूसरी ओर बच्चे के अपने जैविक पिता को जानने के अधिकार का भी ध्यान रखा जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि जबरदस्ती डीएनए परीक्षण कराना व्यक्ति की निजी जिंदगी को सार्वजनिक कर सकता है, जो उसके सम्मान को ठेस पहुंचा सकता है। अंततः कोर्ट ने उस पुरुष की अपील को स्वीकार करते हुए डीएनए परीक्षण के आदेश को रद्द कर दिया।