ये माइक्रोपलास्टक हैं.
जिनका साइज 5 मिलीमीटर जितना ही होता है. ये खिलौनों, कपड़ों, गाड़ियों, पेंट, कार के पुराने पड़े टायर या किसी भी चीज में होते हैं. हमारे पास से होते हुए ये वेस्टवॉटर में, और फिर समुद्र में पहुंच रहे हैं. यहां से समुद्र के इकोसिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं और फिर बारिश बनकर धरती पर वापस लौट आते हैं.
क्या हम देख सकते हैं ?
वैसे तो खुली आंखों से ये दिखाई नहीं देते लेकिन अगर आप यूवी लाइट के साथ खड़े हो जाएं और बिल्कुल पास ही आपको हवा में छोटे-छोटे कण दिखेंगे. ये माइक्रोपलास्टक हैं. डराने वाली बात ये है कि घर के भीतर माइक्रोपलास्टक कहीं ज्यादा पाए जाते हैं.
संरिक्षत इलाकों तक जा रहा प्रदूषण
साइंस जर्नल में अमेरिका पर हुई एक स्टडी प्रकाशित हुई. इसमें किसी प्रदूषित शहर का नहीं, बिल्क सबसे साफ माने जाने वाले दक्षिणी नेशनल पार्क की हवा जांची गई. लगभग 14 महीने तक वहां बारिश को देखा गया और पता लगा कि इतने ही महीनों में 1 हजार मैट्रिक टन से ज्यादा प्लास्टक बरस चुका है. ये प्रोटेक्टेड एरिया था, जहां कम से कम कई किलोमीटरों तक न तो वाहन होता है, न पॉल्यूशन का कोई और स्त्रोत. वैज्ञानिकों ने माना कि आर्कटिक जैसी इंसानों से खाली जगह भी अब पलास्टक रेन झेल रही है. ये स्टडी भारत में नहीं हुई, लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ज्यादा आबादी वाले देशों में हालत ज्यादा खराब होगी.
क्या कहती है ताजा स्टडी ?
यूनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड, न्यूजीलैंड ने पाया कि शहर की छतों के हर वर्ग मीटर पर 5 हजार से ज्यादा माइक्रोपलास्टक बिछा होता है. रिसर्च हफ्तों तक चली, जिसमें तकरीबन रोज वही नतीजा आया. चूंकि वहां वाहनों या ज्यादा आबादी के चलते प्रदूषण कम है तो पता लगा कि प्रदूषण पैकेजिंग मटेरियल से हो रहा है. बता दें कि पैकेजिंग में पॉलीएथिलीन इस्तेमाल होता है, जो एक किस्म का इक्रोपलास्टक है. इसके अलावा इलेक्ट्रकल और इलेक्ट्रॉनिक सामानों से पॉलीकार्बोनेट निकलता है, ये भी प्लास्टक का एक प्रकार है.
सेहत पर क्या पड़ता है असर ?
साल 2021 में माइक्रोप्लास्टक के असर पर रिसर्च हुई, जिसमें खुलासा हुआ कि हम रोज लगभग 7 हजार माइक्रोप्लास्टक के टुकड़े अपनी सांस के जरिए हैं. पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी की स्टडी में माना गया कि ये वैसा ही है, जैसा तंबाखू खाना या सिगरेट पीना. फिलहाल ये पता नहीं लग सका कि प्लास्टक की कितनी मात्रा सेहत पर बुरा असर डालना शुरू कर देती है, लेकिन ये बार-बार कहा जा रहा है कि इससे पाचन तंत्र से लेकर हमारी प्रजनन क्षमता पर भी बुरा असर होता है. प्लास्टक कैंसर कारक भी है. फिलहाल माइक्रोप्लास्टक पॉल्यूशन को कम करने के लिए तकनीकें बनाई जा रही हैं. आमतौर पर ये सिंगल यूज प्लास्टक में होता है, जिसे इस्तेमाल के बाद फेंक दिया जाता है. यहां से यह हवा-पानी मिट्टी को प्रदूषित करता चलता है.