‘इतिहास स्वयं को दोहराता है, पहले त्रासदी के रूप में और फिर प्रहसन के रूप में।’
कार्ल मार्क्स का यह ऐतिहासिक कथन इन दिनों रह-रहकर मेरे दिमाग पर दस्तक देता है। वजह? गए 66 साल से हम भारतीय राजनीति में कुछ प्रहसनों का रह-रहकर दोहराव देखने को अभिशप्त हैं। देश-दुनिया के प्रमुख औद्योगिक समूह अडानी और उसके सियासी रिश्तों पर जारी विवाद इस अंतहीन प्रहसन शृंखला की अगली कड़ी है।
जब नेहरू के पार्टी पर दामाद फिरोज ने लगाया आरोप.
अपनी बात समझाने के लिए मुझे आपको 1957 के वैचारिक अंधड़ से आक्रांत दिनों की ओर ले चलना होगा। पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और फिरोज गांधी उनके इकलौते दामाद। फिरोज ने लोकसभा में एक दमदार भाषण के जरिये आरोप लगाया था कि कोलकाता के उद्योगपति और स्टॉक सट्टेबाज हरिदास मूंदड़ा की छह खस्ता हाल कंपनियों में सरकारी कंपनी लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (एलआईसी) ने सवा करोड़ रुपये से अधिक निवेश किया है। फिरोज गांधी का कहना था कि वित्त मंत्री टीटी कृष्णमचारी और वित्त सचिव एचएम पटेल ने एलआईसी पर इस निवेश के लिए दबाव बनाया। नेहरू ने मामले की जांच के लिए बंबई उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम सी छागला की सदारत में समिति का गठन किया। छागला ने रिकॉर्ड 24 दिनों में सुनवाई कर रिपोर्ट दी और कृष्णमचारी को 18 फरवरी, 1958 को इस्तीफा देना पड़ा। बाद में मूंदड़ा गिरफ्तार हुए और उन्हें 22 वर्षों की जेल की सजा सुनाई गई।
बताने की जरूरत नहीं कि जवाहरलाल नेहरू बेदाग थे, मगर उनकी भी साफ-शफ्फाफ छवि पर कुछ दिनों के लिए ग्रहण जरूर लग गया था। साढ़े छह दशक बीत जाने के बावजूद हम एक बार फिर एलआईसी पर लगभग समान आरोप देख रहे हैं। एलआईसी न तब डूबी, न अब डूबेगी, मगर उसके भरोसे पर एक बार फिर चोट हुई है। आप चाहें, तो इसे भारतीय राजनीति की कभी न खत्म होने वाली त्रासदी कह सकते हैं।
इंदिरा गांधी को होना पड़ा था गिरफ़्तार.
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि जवाहरलाल नेहरू से नरेंद्र मोदी तक तमाम प्रधानमंत्रियों पर ऐसे ही आरोप लगे हैं। इंदिरा गांधी को तो 3 अक्तूबर,1977 को दिल्ली में गिरफ्तार तक कर लिया गया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए 104 जीप हासिल करने हेतु दो कंपनियों पर दबाव डाला। इसके अलावा तेल खुदाई का एक बड़ा ठेका कम बोली वाली प्रतिस्पर्द्धी कंपनियों की अनदेखी कर एक फ्रांसीसी कंपनी को देने के लिए अपने पद का दुरुपयोग किया। अगले दिन उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया, पर अदालत के सामने सीबीआई पर्याप्त सुबूत न पेश कर सकी। नतीजतन, उन्हें महज 16 घंटों के भीतर रिहा करना पड़ा।
राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन का प्रकरण से बदला बयार.
इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी भी इस राजरोग से अछूते नहीं बचे। वह 1985 के शुरुआती दिनों में घोषित हुए चुनाव परिणाम में 414 सीटों के ‘भूतो न भविष्यति’ वाले आंकडे़ को प्राप्त कर सत्ता-सदन में पहुंचे थे। अब तक उनका जीवन विवादों से परे था, पर स्टॉकहोम से आई एक खबर ने उनकी समूची छवि को गर्द-ओ-गुबार से घेर दिया। 24 मार्च, 1986 को भारत सरकार और स्वीडिश हथियार कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 155 एमएम की 400 होवित्जर तोपों की आपूर्ति के लिए 1,437 करोड़ रुपये का सौदा हुआ था। 16 अप्रैल, 1987 को स्वीडिश रेडियो ने दावा किया कि इस सौदे में रक्षा विभाग के अधिकारियों और कुछ वरिष्ठ राजनेताओं को रिश्वत दी गई। 20 अप्रैल को राजीव गांधी ने संसद में सफाई दी कि इसमें किसी बिचौलिए की कोई भूमिका नहीं थी और न ही दलाली दी गई, पर विवाद थमा नहीं। तंग आकर सरकार ने अगस्त 1987 में संयुक्त संसदीय समिति का गठन कर दिया। बी. शंकरानंद इसके मुखिया थे। समिति ने एक सदस्य की नाइत्तेफाकी के बावजूद सरकार के पक्ष में रपट दी। हालांकि, सीबीआई की जांच का लंबा सिलसिला चला। बाद में 5 फरवरी, 2004 को दिल्ली हाईकोर्ट ने राजीव गांधी और रक्षा सचिव एस के भटनागर के खिलाफ रिश्वत के आरोप निरस्त कर दिए। अप्रैल 2012 में स्वीडिश पुलिस ने भी कहा कि राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन के खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिले।
वाजपेयी और मनमोहन भी आये लपेटे में.
राजीव गांधी के बाद सत्तारूढ़ हुए नरसिंह राव पर निजी भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें पदमुक्त होने के बाद लंबे समय तक कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। अटल बिहारी वाजपेयी के काल में तथाकथित ताबूत घोटाले की गूंज हुई और मनमोहन सिंह के सहयोगियों को जेल की हवा खानी पड़ी। सुकून की अकेली बात यह है कि वाजपेयी अथवा सिंह के ऊपर निजी तौर पर भ्रष्टाचार के आरोप न थे।
और अब मोदी टर्म हैं जारी.
अब मौजूदा विवाद की बात। जनवरी के तीसरे सप्ताह में अडानी के खिलाफ अमेरिकी शॉर्ट सेलर कंपनी हिंडनबर्ग की एक रिपोर्ट आती है और तरह-तरह के आरोप हवा में उछलने लगते हैं। देखते-देखते अडानी समूह को लाखों करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ जाता है। हालांकि, समूह अब उस संकट से उबरता हुआ नजर आ रहा है, पर राजनीति करवट ले चुकी है। राहुल गांधी ने अडानी और मोदी सरकार के बीच कथित संबंधों पर लोकसभा में तमाम तीखे सवाल खडे़ किए। यह बात अलग है कि आरोपों को प्रमाणित न कर पाने के कारण लंबे भाषण के कुछ हिस्से कार्यवाही से हटा दिए गए हैं। इस कार्रवाई ने माननीय सांसदों के अधिकारों और दायित्वों पर नई बहस खड़ी कर दी है। कांग्रेस इसे लोकतंत्र की हत्या बता रही है, तो सत्ता पक्ष इसे सांसदों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये पर रोक के रूप में प्रचारित कर रहा है।
विपक्ष अपने काम में मुस्तैद.
यकीनन, राहुल गांधी इस सारे मामले के जरिये प्रधानमंत्री मोदी को घेरने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। वह पहले भी ऐसा कर चुके हैं। पिछले चुनावों से पहले उन्होंने राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। उनकी सभाओं में नारे लगते थे- ‘चौकीदार चोर है’। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लडे़ गए दूसरे चुनाव में भाजपा ने पहले से ज्यादा सीटें जीतकर साबित कर दिया कि उन पर मतदाताओं का भरोसा डिगा नहीं, बढ़ा है। अब, जब अगले आम चुनाव में महज सवा साल का समय शेष है। इस दौरान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के नेताओं का प्रयास होगा कि वे इस ढोल को ज्यादा से ज्यादा पीटें। क्या वे इस बार सफलता हासिल कर सकेंगे?
जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सवाल है, वह एक ऐसे बल्लेबाज की तरह अविचल दिखाई पड़ रहे हैं, जो हर विधा की कठिन से कठिन गेंद आसानी से खेलने की क्षमता रखता है। लोकसभा और राज्यसभा में अपने भाषणों में उन्होंने इसीलिए एक बार भी इन आरोपों का जिक्र तक नहीं किया। उन्हें खुद पर और देश के 140 करोड़ लोगों के भरोसे पर भरोसा है।
मोदी को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने में जुटा विपक्ष अगर इस बार भी अपेक्षा के अनुरूप सफलता नहीं हासिल कर पाता, तो मार्क्स की उक्ति एक बार फिर खुद को चरितार्थ करती दिखाई पड़ेगी।
शशि जी से HT editorial मुलाक़ात.