19वीं-20वीं सदी में ब्रिटिश इंडिया का असर खाड़ी देशों—दुबई, बहरीन, अबूधाबी, शारजाह, ओमान, कतर, कुवैत—तक फैला हुआ था। इन क्षेत्रों के सुल्तान, अमीर और शेख़ भारतीय गवर्नर-जनरल के अधीन, यानी दिल्ली से निर्गत आदेशों, करारों और न्याय के तंत्र के तहत कार्य करते थे। कई साल तक खाड़ी का सबसे बड़ा बंदरगाह ‘मुंबई पोर्ट’ इन देशों के व्यापार, पत्र-व्यवहार और वित्तीय लेन-देन का केंद्र था।
जमीन से लेकर कोर्ट कचहरी सब था भारत में
ब्रिटिश प्रशासन की दिल्ली में बैठी अफसरशाही से वीज़ा, व्यापारिक अनुबंध, कानूनी मामलों, भूमि, समुद्रीय अधिकार, और यहां तक कि राजनीति संबंधी दिशानिर्देश तक जारी किए जाते थे। उदहरण के लिए, 1930-40 के दशक में दुबई के शासक भारत आकर बंबई, दिल्ली और कोलकाता के अफ़सरों के साथ अपने राज्यों की भलाई और कारोबार के मसलों पर विमर्श करते थे। यहाँ के कतिथ ‘औद्योगिक न्यायालय’, सिविल कोर्ट और राजस्व विभाग ने कई बार दुबई और बाकी खाड़ी देशों की ज़मीन-जायदाद, कर और व्यापारिक विवादों का निपटारा किया।

1947 में भारत की आज़ादी के बाद, ब्रिटिश सरकार ने ‘ट्रूशियल स्टेट्स’ (संरक्षित राज्य) के रूप में खाड़ी देशों को भारत से प्रशासनिक रूप से अलग कर दिया, लेकिन तब तक वहाँ के स्कूल, कोर्ट, दफ्तरों में भारतीय अफ़सरों का बोलबाला था।
कई ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में उदाहरण मिलता है कि दिल्ली से जारी निर्देशों और कायदों ने दुबई समेत पूरे खाड़ी की नीतियों, समाज और आर्थिक विकास पर बड़ा असर डाला। आज भी दुबई-भारत प्रशासनिक और सांस्कृतिक रिश्तों की गहराई उसी दौर की याद दिलाती है—इसलिए कहा जाता है, भारत और दुबई रिश्ता सिर्फ व्यापार या प्रवासी आबादी तक सीमित नहीं, बल्कि शासन, कानून और संस्थागत साझा विरासत से भी जुड़ा है.




