भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली है, और इस वक्त सबसे संप्रदायिक दं’गों का बढ़ा पन्ना भी दिल्ली ही है. लोगों के घर ज’ले हैं, अरमान ज’ले हैं, इंसानी मौ’तों का आंकड़ा लगभग 40 छूने को है.
दर्जनों अभी लापता है उनके परिजन अलग-अलग अस्पतालों के चक्कर का’ट रहे हैं कि कहीं जिंदा ना सही तो मौ’त के बाद ही दीदार हो जाए. हालात अब जितना सोच रहे हैं उससे कहीं ज्यादा डराने वाला है.
इस वक्त सोशल मीडिया पर अगर भारत में कोई चर्चा चल रही है तो आपको जानकर आश्चर्य होगा की यह चर्चा मानसिक रूप से उत्पीड़ित इन लोगों की भर्त्सना करने की जगह हिंदू और मुसलमान की चर्चा हो रही है.
सोशल मीडिया पर आईटी सेल बने हुए हैं और इस वक्त उन्हें मोटे पैकेज हिंदू मुसलमान के दंगे को एक नई तस्वीर देने के लिए जारी किए जा चुके हैं. भारतीय सोशल मीडिया को खोल कर देख ले तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि सबसे युवा देश होते हुए यह युवा इस भड़के दंगे में एक मजहब की हार तो एक मजहब की जीत ढूंढ रहे हैं.
मारे गए लोगों के लाशों में यह अपने धर्म का झंडा खोज रहे हैं, यह युवा इस वक्त या मैं कहूंगा कि यह भटके हुए युवा इस वक्त चीख रहे परिजनों के चित्कार में अपने धर्म के जीत की आवाज ढूंढ रहे हैं.
मौ’त हिंदू की हुई हो या मुसलमान की, किसी लड़के के हुई हो जिसकी 10 दिन पहले शादी हुई थी या 50 साल के उस बुजुर्ग की जिसने 30 साल मेहनत कर दिल्ली में एक परिवार सजाया था, मौत उस रिक्शा चलाने वाले की हुई हो जो दो वक्त की रोटी के लिए सब को मंजिल तक पहुंचाते फिरता था, या मौत उस सिपाही की हुई हो जो इन्हीं लोगों के अमन-चैन के लिए अपनी ड्यूटी पर तैनात था.
भारत में इस वक्त दिग्भ्रमित युवाओं को इन से क्या फर्क पड़ता है वह तो अब भी ना जाने किस जीत का जश्न मना रहे हैं और किस अगली लड़ाई का शेज सजा रहे हैं. कुछ नहीं पता बस इतना आगे आने के बाद भी यह एहसास जरूर होता है की 1947, 1984, 1992, 2002 और कई ऐसे सांप्रदायिक दंगों से हमने कुछ नहीं सीखा.
अमन चैन की भाषा बोलना तक भूल गए हम, मुझे इस दंगे में कोई जीत नजर नहीं आती अगर आपको कुछ आ रही है तो जरूर मार्गदर्शन कीजिए मैं अपने नजरिए से देखता हूं तो लगता है कि हमने बस खोया है, खोया है, और बस खोया ही है.
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